इससे साधु जैसा हुआ जा सकता है।

  • 04 Sep 2020
  • Posted By : Jainism Courses

इससे साधु जैसा हुआ जा सकता है।

(ईस्वीसन २००४)

 

शिक्षा के साथ संस्कारों का विशिष्ट ढंग से दान कर रही, अनेक बालकों के जीवन और हृदय का परिवर्तन करने वाली, जैनशासन की धुरा का वहन करने वाली, भावी पीढ़ी को सही अर्थ में सज्ज कर रही तपोवन संस्था की यह बात है।

 

उपाश्रय में अनेक लडके वंदन करने के लिए आते हैं। पूर्व निश्चित समय के अतिरिक्त बिना वजह लड़कों को वंदन करने हेतु या मिलने के लिए आने से मनाही थी।

 

एक दिन दोपहर वेला में गोचरी का वक्त हुआ ही था कि एक लड़का दौड़ते हुए उपाश्रय पहुंचा।

मैंने पूछा: “क्यों इस समय आये हो?”

“गुरूजी! आपको गोचरी की विनती करने के लिए आया हूँ।”(तपोवनी बालक सभी महात्माओं को गुरूजी कहकर संबोधित करते हैं।)

“क्यों रोज नहीं और आज ही। हम तो यहाँ कई दिनों से रह रहे हैं।”

“गुरूजी! आज मेरा जन्म दिवस है।”

“तो क्या हुआ? ”

“हमें ऐसे संस्कार दिए गए हैं कि जन्म दिवस के अवसर पर गुरूजी को गोचरी वहोराने के बाद ही वापरना है। अत: मैं आप से गोचरी के लिये विनती करने के लिए आया हूँ। आप पधारिये और मुझे लाभ दीजिये।”

मैं गोचरी की तैयारी कर ही रहा था। 2-3 मिनट में तैयार हो गया और उसके साथ गोचरी के लिए भोजनशाला की ओर निकला। गोचरी वहोरकर वापस लौटा। वह तपोवानी बालक मुझे पहुँचाने के लिए उपाश्रय तक आया। उसका विनय, विवेक, साधु के प्रति बहुमान भाव आदि देखकर मैं तो दंग रह गया। यह किसी विशिष्ट संस्कारी घर का लड़का होगा। इसीलिए उसमें ऐसी साहजिक गुणयुक्तता दृष्टिगोचर होती है।

गोचरी रखकर मैंने उसे बिठाया। मुझे उसमें कुछ दिलचस्पी जगी।(शिष्य बनाने के भाव से नहीं ) पूछने लगा।

“तुम्हारा नाम क्या है?”

“नमन।”

“कितने वर्ष से तपोवन में पढ़ रहे हो?”

“यह दूसरा वर्ष है।”

“इतने सुंदर संस्कार कहाँ से प्राप्त किये?”

“तपोवन से।”

“मम्मी-पापा पूजा इत्यादि करते हैं? ”

“ना गुरूजी! मैं जन्म से अजैन हूँ। घर के सभी लोग अजैन हैं। यहाँ अच्छी शिक्षा प्राप्त होती है, इसलिए यहाँ पढ़ने के लिए मुझे रखा है।”

“तुम जन्म से अजैन हो?” मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि क्या तपोवन इतना सुन्दर संस्कार दान कर सकता है!

पुन: पूछना शुरू किया।

“पूरे दिन भर की सारी प्रवृत्ति में तुम्हें कौन सी प्रवृत्ति ज्यादा प्रिय है? जैसे कि खेलकूद, स्कूल, सामायिक, अष्टप्रकारी पूजा,रीडिंग आदि।”

एक ही सांस में उसने कहा-“गुरूजी! सामायिक।”

 

बालक के मनोगत भाव जानने की भावना होने के कारण जितने भी लडके मिले, उन सबको 'सभी प्रवृत्तियों में से तुम्हें कौन-सी प्रवृत्ति में अधिक आनंद होता है?' इस प्रश्न के अधिकांश लड़कों के उत्तर 'अष्टप्रकारी पूजा और खेलकूद' ही प्राप्त हुए थे। हम भी समझते ही हैं कि खेलना तो लडकों को अच्छा लगता ही है और पूजा भक्ति में भगवान तो हैं पर उसमें संगीत और गीत गायन भी आता है। इसलिए उसका विशेष आकर्षण रहता है।

 

पर नमन की ओर से तो अपेक्षातीत उत्तर मिला। वह भी अजैन बालक के मुख से ‘सामायिक मुझे बहुत प्रिय है।’ यह जवाब और आश्चर्य पैदा करने वाला सिद्ध हुआ। अत: मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा:

 

“तुम्हें सामायिक क्यों अधिक प्रिय है?” यह सवाल सुनकर अत्यंत भावनापूर्ण लहजे में लडके ने कहा:

“गुरूजी! जब से मैं गुरूओं के संपर्क में आया हूँ तब से सारे गुरूदेव मुझे बहुत अच्छे लगने लगे हैं। उनकी चर्याएँ बहुत अच्छी लगती हैं। कई बार उपाश्रय में आकर बैठा रहता हूँ और उनके पूंजने के, अध्ययन करने के तथा प्रतिक्रमण के शास्त्रोक्त व्यवहारों को देख-देखकर हर्षित होता रहता हूँ। सच कहूँ तो जैसे ही मुझे समय मिलता है, मैं उपाश्रय ही जाता हूँ। इस कारण अन्य लडके भी आने लगे। अत: गृहपतिजी को नियम बनाना पड़ा कि निश्चित समय पर ही वंदन के लिए जाया जाये।”

 

पुन: मैंने पूछ लिया किये सारी बातें तो सही हैं पर उसमें सामायिक विशेष प्रिय है, उस बात का उत्तर कहाँ है?”

“गुरूजी! मुझे साधु बहुत प्रिय हैं, साधु होना बहुत अच्छा लगता है और सामायिक में आपके जैसा होने का अवसर मिलता है। अत: मुझे उसमें अधिक आनंद होता है।

 

१४ वर्षीय इस लडके का ऐसा सुन्दर जवाब सुनकर मैं तो स्तब्ध रह गया। उसकी पूर्वजन्म की आराधना और विशिष्ट संयमराग की वंदना करता रहा।